पाठ 128: त्याग की पूर्णता

अगर कोई बंदूक लेकर बैंक में जाता है और उसे लूटता है, तो वह अपराधी है। और अगर कोई बैंक में जाता है और घोषणा करता है, “मैं इस बैंक का त्याग करता हूं”, तो वह पागल है क्योंकि बैंक उसका नहीं है। तो चाहे हम इस संसार का आनंद लेने की कोशिश करें या तथाकथित संन्यास द्वारा खुद को इस संसार से काट लें – दोनो स्थिति अनुचित है। उचित मनोदशा यह देखना है कि यह दुनिया कृष्ण की संपत्ति है और इसलिए उनकी ही सेवा में लगनी चाहिए। यह त्याग की पूर्णता है।

कृत्रिम त्याग भोग का अप्रत्यक्ष प्रयास है, लेकिन अधिक सूक्ष्म तरीके से। मैं इस भौतिक दुनिया में महान बनने में विफल रहा, इसलिए अब मैं यह सोचूंगा कि मैं इसे त्याग कर महान हूं। लेकिन यह मेरे कभी था ही नहीं। तो मैं इसे कैसे त्याग सकता हूं? मेरा तथाकथित त्याग केवल भ्रम है।

अगर मुझे सड़क पर पड़ा हुआ एक लापता बटुआ मिल जाए, तो मैं पैसे ले सकता हूं और उसे खर्च कर सकता हूं, जो कि निम्न वर्ग और बेईमानी होगी। मैं सिर्फ यह सोचकर चल सकता था कि यह मेरा नहीं है। यह त्याग निश्चित रूप से किसी और के पैसे खर्च करने से बेहतर है। या मैं इसमें देख कर उनके मालिक के नाम और पता मालूम करके उसे वापस कर सकता था। यह सबसे अच्छी स्थिति है। यह कृष्णभावनामृत है, त्याग की पूर्णता है, यह देखना कि यह दुनिया कृष्ण की संपत्ति है और इसे उनकी सेवा में संलग्न करना।

इस सप्ताह के लिए कार्य

भगवद-गीता यथा रूप अध्याय 6, श्लोक 1 को ध्यान से पढ़ें और इस प्रश्न का उत्तर दें:
कैसे कृत्रिम त्याग भगवान की मायावी शक्ति के भीतर किसी के उलझाव को बढ़ाता है?

अपना उत्तर ईमेल करें: hindi.sda@gmail.com

(कृपया पाठ संख्या, मूल प्रश्न और भगवद गीता अध्याय और श्लोक संख्या को अपने उत्तर के साथ अवश्य शामिल करें)